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Chhattisgarh: फसल सुरक्षा के उपाय एवं कृषि उपकरणों की पूजा, बस्तर लोक जीवन का प्रथम पर्व – अमुस तिहार

अमुस में परंपरागत समाज की भूमिका

बस्तर लोक जीवन का प्रथम पर्व – अमुस तिहार

 

श्रावण अमावस्या को बस्तर का जनजातीय समाज खुशहाली के प्रथम पर्व के रूप में हरियाली त्यौहार मनाता है।जिसे हल्बी परिवेश में ” अमुस तिहार ” अथवा ” अमउस तिहार ” कहा जाता है। बस्तर के अलावा विभिन्न अंचलों में यह त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ी परिवेश में इसे हरेली के नाम से जाना जाता है।

सावन के महीने में वर्षाऋतु के कारण खेत – खलिहान पानी से भर जाते हैं। किसान द्वारा खेतों में सींचे गये बीज अंकुरित होकर तीव्र गति से वृद्धि करने लगते हैं। वनोपज, फसलें और प्राकृतिक वनस्पतियॉं हरी -भरी दिखने लगती हैं, जिसके कारण प्रकृति में चहुंओर हरियाली ही हरियाली दृष्टिगोचर होने लगती है। किसान खेतों में अपने श्रम से उपजे लहलहाते फसल को देखकर फूला नहीं समाता और अपनी खुशी को त्यौहार के रूप में प्रकट करता है।

वातावरण में जलाधिक्य से नमी की मात्रा बढ़ जाती है, जिसके कारण कई जलजनित रोग हैजा, अतिसार, उल्टी – दस्त, मलेरिया बुखार समेत खाज – खुजली जैसे चर्मरोगों की अधिकता होती है। रोगाणु, कीटाणु, विषाणु एवं अनावश्यक कीट – पतंगों को इस मौसम में पनपने के लिए अनुकूल वातावरण मिल जाता है।इनकी सक्रियता के कारण वातावरण दूषित होने लगता है।

 

अमुस में परंपरागत समाज की भूमिका –

 

बस्तर अंचल में माड़िया, मुरिया ,भतरा ,हल्बा,परजा,धुरवा,गोंड जैसी जनजातियों के साथ राउत,धाकड़,पनारा (मरार),कलार,सुण्डी,लोहार, कुम्हार,गाण्डा,कोष्टा जैसी परंपरागत जातियां सदियों से आबाद हैं।आदिम समाजों के साथ विभिन्न समाजों के मध्य संपर्क एवं सामाजिक व्यवहार ने बस्तर की लोक संस्कृति को समृद्ध किया है।

गांव – देहात में मवेशियों को चराने का कार्य आमतौर पर राउत जाति के चरवाहे करते हैं, जिन्हें “धोरई” कहा जाता है। पशुओं के साथ दिन भर रहने से उनके प्रति आत्मीय लगाव होना स्वाभाविक ही है। जंगल में चराई के दौरान विचरण करने से पशुओं के रोगों से संबंधित वनौषधियों का ज्ञान इन्हें हो जाता है। वर्षाकाल में खुरा – चपका, गलघोंटू एवं अन्य रोग चौपाये जानवरों को होते हैं।धोरई अपने औषधीय ज्ञान के आधार पर इनका उपचार भी कर लेता है।

सावन अमावस के दिन धोरई जंगल जाकर जड़ी – बूटियों की खोजबीन करता है।सतावरी,रसना जड़ी और भेलवां (बिंब) की नारियल, अगरबत्ती से पूजाकर सतावरी की नार और रसना जड़ी को खोदकर निकाल लेता है और घर वापस आता है।अमुस तिहार के दिन प्रातः काल भेलवां पान में सतावरी और रसना जड़ी को कुमी (स्थानीय वनस्पति) वृक्ष की बेल से बांधकर चिपटकर घर के मुख्य दरवाजे के चौखट के ऊपरी हिस्से में बांध देता है।धोरई उन्हीं घरों में औषधि बांधता है,जिन घरों का वह मवेशी चराता है।

लोहार प्रातः काल गांव के सभी घरों के चौखट में दुर्गागोटी (लौहमल का चूर्ण)को ठोंकता है,जिसे लोकभाषा हल्बी में “खुंटी ठेचतो ” कहते हैं।पीढ़ा,खाट आदि में भी लोहार द्वारा दुर्गागोटी ठोंका जाता है। लोहार एवं राउत को सेवा के एवज में रोसई (सूखा राशन,दाल – चावल) अथवा नकद राशि देने की परंपरा है।

अमुस तिहार की वैज्ञानिकता –

जनजातीय समाज पारंपरिक चिकित्सा में सिद्धहस्त है। आधुनिक चिकित्सा के अभाव में आज भी आदिवासी इलाकों में रोगों का ईलाज जड़ी – बूटियों के द्वारा किया जाता है।भेलवॉं, सतावरी,रसनाजड़ी,कुमीबेल के औषधीय महत्व के बारे में और इनके गुण – धर्म संबंधी जनजातीय समाज का ज्ञान वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है।

औषधीय महत्व का वृक्ष बिंब,जिसे लोकभाषा हल्बी में ” भेलवॉं “और गोंडी में ” कोहका” कहा जाता है। वनौषधियों के जानकारों के अनुसार इसकी शाखाओं, पत्तों,फल और तेल में कीटनाशक गुण होते हैं। भेलवॉंपान चौपाये जानवरों में होने वाले खुरा – चपका और फसलों में होने वाली बीमारियों की रोकथाम करता है।घाव होने पर, किसी नुकीली वस्तु के पैर में चुभने पर अथवा चोट लगने पर इसके फल को काटकर गरम करके तेल को चोटिल हिस्से पर लगाया जाता है।एक प्रकार से यह वनौषधि टिटनेस का काम करती है।

रसना जड़ी स्वाद में कड़वा है।यह जड़ी एण्टीबायोटिक का काम करती है। जीवों और फसलों में प्रजनन क्षमता को बढ़ाने का कार्य करती है। हार्मोन्स की सुरक्षा करती है। पाचनशक्ति को बढ़ाकर स्वास्थ्य में सुधार लाने का कार्य करती है। इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण औषधि सतावरी है।जिसे हल्बी में ” छेदावरी ” कहते हैं।इसका एक नाम दशमूल कंद भी है। इसकी दस अलग-अलग प्रकार की जड़ें अथवा कंद होती हैं।सिरहा – गुनिया इसे ” देवबाढ़न ” के नाम से जानते हैं। सतावरी रोग प्रतिरोधी क्षमता और पोषक तत्वों का भण्डार है।ब्लड प्रेशर की रोकथाम,कामोत्पादक, गुर्दे की सफाई और पथरी बीमारी का नाश करती है। इसके रस को पीने से शरीर स्वस्थ और मजबूत बनता है।

पेटदर्द, कमरदर्द एवं अन्य अंगों में दर्द के ईलाज के लिए अमुस तिहार के दिन रसनाजड़ी को आग में हल्का गरम कर प्रभावित अंगों में जड़ी से आंका जाता है। बच्चों को नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से बचाने अथवा नजरदोष से बचाने के लिए रसनाजड़ी से पैर के निचले हिस्से और कमर के पृष्ठभाग में आंकने की प्रथा है।

वनौषधियों के जानकारों के अनुसार रसना जड़ी और सतावरी में कीटाणुनाशक और वायुशोधक गुण होते हैं। पशुओं के गलघोंटू एवं अन्य रोगों के लिए ये औषधियां अमृत के समान हैं।कुमी वृक्ष की बेल टूटी हड्डियों एवं मांसल भाग को जोड़ने का कार्य करती है। रसनाजड़ी, सतावरी की नाल और भेलवॉंपान घर में रखने से नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता तथा घर का वातावरण शुद्ध बना रहता है।इस दिन बुरी शक्तियों को घर में प्रवेश से रोकने के उद्देश्य से दुर्गागोटी को चौखट में ठोंकने का रिवाज है।इन उपायों से वर्षभर घर – परिवार को नकारात्मक ऊर्जा से सुरक्षा मिल जाती है।ये जड़ियॉं और वनौषधियॉं पशुओं के लिए अमृत के समान हैं। पशुओं के गलघोंटू एवं अन्य बीमारियों के लिए ये वनौषधियॉं रामबाण ईलाज है।

अमुस तिहार के दिन प्रातः काल स्नानादि कर ग्रामीण देवगुड़ी जाते हैं।अच्छे फसल की कामना के साथ ईष्टदेव की पूजा – अर्चना करते हैं और आभार प्रदर्शित करते हैं। तथ्यात्मक दृष्टि से हरेली तिहार पशुधन की चिकित्सा,फसल – सुरक्षा एवं कृषि औजारों की पूजा – अनुष्ठान के लिए समर्पित है।

 

फसल सुरक्षा के उपाय एवं कृषि उपकरणों की पूजा –

 

हल्बा जनजातीय एवं परंपरागत समाज का कृषक तेन्दूडारा (तेन्दू वृक्ष की डगाली), भेलवॉंपान की चिपटी में सतावरी, रसनाजड़ी और आग,घी,,धूप, अगरबत्ती लेकर प्रातः काल खेतों की ओर जाता हैं। सर्वप्रथम धरतीमाता की पूजा – अर्चना कर क्यारियों के मध्य तेन्दूडारा को गाड़ता है। भेलवॉंपान की चिपटी को कुमी बेल से डगाली में बॉंधता है और प्रणाम कर वापस घर आता है। फसलों की सुरक्षा की यह प्राकृतिक विधि है। सतावरी और रसनाजड़ी में कीटाणुनाशक और वायुशोधक गुण होने के कारण इसके गंध से कीट – पतंगें फसल के पास नहीं आते। तेन्दूडारा फसल से अलग दिखने से पक्षियां इस पर बैठकर कीट पतंगों को खाती हैं।

कृषक इस दिन कृषि उपकरण हल, जुआड़ी,फावड़ा, कुदाली,गैत्ती,सब्बल, हंसिया इत्यादि को धोकर लाली, सिंदूर लगाकर नारियल, अगरबत्ती से विधिवत पूजा करते हैं और कृषि कार्य में निरंतर सहयोग के लिए प्रार्थना करते हैं।धोरई और किसान सतावरी और रसनाजड़ी में नमक मिलाकर सिंयाड़ी पत्ती में चिपटकर गाय- बैलों को खिलाते हैं।

 

शाकभाजी, जड़ी – बूटी और वनौषधियों को जोगाने की परंपरा

 

वर्षा के कारण खनिज लवण जल में घुलकर क्रियाशील हो जाते हैं और ये पौधों के जड़ से शीर्ष भाग तक पोषण प्रदान करते हैं। आवश्यकता से अधिक उर्वरता के प्रभाव से शाकभाजी के पौधे तीव्र गति से वृद्धि करने लगते हैं और पत्तियॉं तक हरी – भरी दिखने लगती हैं।इस अवधि के आवश्यकता से अधिक पोषण क्षमता से भरपूर सागभाजी का सेवन करने से पाचक अंगों पर विपरीत असर होता है और पाचन तंत्र कमजोर पड़ने लगता है,इसलिये इस अवधि में दस्त, पेटदर्द एवं पेट से संबंधित रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।इसी कारण बरसाती मौसम के शाकभाजी का सेवन करने से बुजुर्गजन मना करते थे। पुरखों द्वारा उपयोग की पाबंदी ने परंपरा का रूप ले लिया और आदिम समाज में वानस्पतिक पदार्थों, फसलों और वनोपजों को उपयोग में लाने के पूर्व ” जोगाने ” की परंपरा विकसित हुई।जोगाने से तात्पर्य है – वानस्पतिक पदार्थों को उपयोग में लाने के पूर्व ग्रामदेवी अथवा ईष्टदेव में अर्पण करना।

उल्लेखनीय है कि आदिवासी समाज अमुस तिहार के दिन इष्टदेव में जीर्रा (खट्टाभाजी),चेंचभाजी,धोबाभाजी को जोगाता है।इन वनस्पतियों के साथ तेन्दू, सतावरी, रसनाजड़ी, भेलवॉं और कुमी बेल को भी जोगाने की परंपरा है।

 

पुंगार वेड़ना अथवा पुल वेड़ताना

 

वनांचलों एवं अबुझमाड़ क्षेत्र के गांवों में माटी गायंता (ग्रामदेवी का पुजारी) अमुस के दिन माटीमाय (धरती माता) की उपासना करता है।जागारानी (ग्रामदेवी) में जीर्रा,मक्का,धान और कोसरा के फूल को जागारानी में अर्पित करता है। गायंता द्वारा ग्रामदेवी में फसलों को अर्पित करने के बाद इन फसलों को जोगाने की रस्म पूरी होती है। जोगाने की इस परंपरा को गोण्डी – माड़िया बोली में ” पुंगार वेड़ना ” अथवा ” पुल वेड़ताना “कहते हैं। जिसका अर्थ है – फूल बॉंधना। जागारानी में चढ़ाये गये फूल को गायंता द्वारा गांव के सरहद में विसर्जित किया जाता है। हरेली तिहार में ग्रामीण अंचलों में एक दिन का पोलवा होता है। पोलवा शब्द ” पोलो “से बना है,जिसका अर्थ है – निषेध।इस दिन कृषि कार्य सहित अन्य कार्यों की मनाही होती है।

 

गेड़ी खेल का रिवाज –

 

अमुस तिहार में घोड़ोंदी (गेड़ी) खेलने का रिवाज है। गोंडी में इसे ” डिटोंग “कहते हैं। बच्चे तथा युवा इस दिन गेड़ी पर चढ़कर नाचते, कूदते हैं और मनोरंजन करते हैं। प्राचीन काल में गेड़ी का उपयोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर कीचड़ अथवा दलदल से पैरों को बचाते हुए चलने के लिए होता था परन्तु समय के फेर ने इसे प्रतियोगिता और मनोरंजक खेल में बदल दिया।पोरा (पोला पर्व) में गांव के सीमा में किसी वृक्ष की सात बार परिक्रमा कर गेड़ी को हाथ से तोड़कर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष में कतारबद्ध बांधकर विसर्जित करते हैं।

 

पाटजात्रा (बस्तर दशहरा का शुभारंभ)/ठुरलु खोटला पूजा

 

बस्तर की संस्कृति अपनी अनूठी विशेषता के लिए विश्व विख्यात है। अंचल में 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशहरा का प्रारंभ हरियाली अमावस्या से होता है। प्रतिवर्ष दशहरा पर्व में रथयात्रा के लिए नवीन रथ का निर्माण किया जाता है।रथ निर्माण हेतु अमावस्या के दिन ही लकड़ी का एक बड़ा टुकड़ा लाया जाता है,जिसे ” ठुरलु खोटला ” हल्बी शब्द है,जिसका अर्थ होता है – पूर्णतः ठोस एवं भरा हुआ तना।इस लकड़ी के टुकड़े की विधिवत पूजा अर्चना की जाती है। दंतेश्वरी माई और अन्य आंचलिक देवी – देवताओं की आराधना कर तने के ऊपर अण्डा,मोंगरी मछली और बकरे की बलि दी जाती है।बलि के बाद मदिरा अर्पित की जाती है और निर्विघ्न रथयात्रा के लिए रथ का निर्माण हो,इस उद्देश्य से देवी – देवताओं से निवेदन किया जाता है। बस्तर दशहरा का विधिवत शुभारंभ इसी रस्म से होता है। दशहरा के इस प्रारंभिक विधान को ” पाटजात्रा ” कहा जाता है।

आदिकाल से बस्तर अंचल में निवासरत जनजातीय एवं परंपरागत समाज के लोग हर्षोल्लास से अमुस तिहार को खुशहाली के आगमन के रूप में मनाते आ रहे हैं। क्षेत्रीयता के आधार पर पर्व मनाने के तौर-तरीकों में थोड़ी बहुत भिन्नता देखने को मिलती है फिर भी रस्मो – रिवाज में काफी हद तक समानता पाई जाती है।

साभार

भागेश्वर पात्र,लोक साहित्यकार एवं सामाजिक शोधकर्ता, नारायनपुर 

Bindesh Patra

युवा वहीं होता हैं, जिसके हाथों में शक्ति पैरों में गति, हृदय में ऊर्जा और आंखों में सपने होते हैं।

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