सावा – इसका नियमित सेवन हमारे इम्यून सिस्टम को फौलाद जैसा मजबूत बनाता है।
सावा – इसका नियमित सेवन हमारे इम्यून सिस्टम को फौलाद जैसा मजबूत बनाता है।
#दंडकारण्य सेहत संदेश
आप में से जितने भी लोग इस पोस्ट को पढ़ रहे होंगे उनमें से बहुत से कम लोगों ने सावा के बारे में सुना होगा। खाना तो और भी दूर की बात रही होगी। यह भारत में एक उत्पादित मोटा अनाज है जिसे हम दशकों पहले भूल चुके हैं। महज 60 साल पहले तक हम भारतीय मुख्य रूप से मोटे अनाजों को खाने वाले लोग थे। हरित क्रांति के बाद हमारी डाइट मुख्य रूप से चावल और गेहूं के जैसे अनाजों तक ही सिमट के रह गई है। पिछले 60 सालों में खेती में हुए परिवर्तन से हम बड़े गुमान के साथ इस बात को स्वीकार करते हैं कि आज हर भारतीय के थाली में खाने के लिए अनाज है। हमारे गोदामों में इसके पर्याप्त स्टॉक उपलब्ध है। पर इस क्रांति की एक ड्रॉबैक भी रही है । हमारे व्यवसायिक नीतियों के कारण हमने खेती की उत्पादन क्षमता तो बहुत बड़ा ली है लेकिन इसके गुणात्मक गुणों में बहुत भारी क्षति हुई है। कुछ दशक पहले तक हमारे तालियों में मोटे अनाज से बने चावल हलवा रोटी और अन्य व्यंजन शोभा बढ़ाते थे।
कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, कुटकी, चिन्ना, जौ ऐसे अनेक अनाज कभी हमारे खान-पान का हिस्सा हुआ करते थे. लेकिन ये हमारी थालियों से गायब हो गए.
ऐसा कहा जाता है कि हमारे पूर्वज हजारों वर्षों से मोटे अनाज का उत्पादन कर रहे हैं. भारतीय हिंदू परंपरा में यजुर्वेद में मोटे अनाज का जिक्र मिलता है. 50 साल पहले तक मध्य और दक्षिण भारत के साथ पहाड़ी इलाकों में मोटे अनाज की खूब पैदावार होती थी. एक अनुमान के मुताबिक देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन में मोटे अनाज की हिस्सेदारी 40 फीसदी थी.
मोटे अनाज के तौर पर ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कांगनी और चीना जैसे अनाज शामिल हैं.
क्यों कहते हैं इसे मोटा अनाज
मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. ये अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं. धान और गेहूं की तुलना में मोटे अनाज के उत्पादन में पानी की खपत बहुत कम होती है. इसकी खेती में यूरिया और दूसरे रसायनों की जरूरत भी नहीं पड़ती. इसलिए ये पर्यावरण के लिए भी बेहतर है.
ज्वार, बाजरा और रागी की खेती में धान के मुकाबले 30 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है. एक किलो धान के उत्पादन में करीब 4 हजार लीटर पानी की खपत होती है, जबकि मोटे अनाजों के उत्पादन नाममात्र के पानी की खपत होती है. मोटे अनाज खराब मिट्टी में भी उग जाते हैं. ये अनाज जल्दी खराब भी नहीं होते. 10 से 12 साल बाद भी ये खाने लायक होते हैं. मोटे बारिश जलवायु परिवर्तन को भी सह जाती हैं. ये ज्यादा या कम बारिश से प्रभावित नहीं होती.
आज पूरे विश्व में इस बात की स्वीकार्यता बढ़ी है कि धान गेहूं की अपेक्षा मोटे अनाजों में ज्यादा पोषक तत्व की मौजूदगी होती है। डाइटिशियन लोगो को मोटे अनाजों से बनी हुई डिशेस अपने थालियों में शामिल करने की सलाह देने लगे है। कई देशों के प्रमुख भी आम जनमानस से इसे अपनाने की अपील की है जिसे कारण बीते कुछ सालो में इसकी डिमांड बढ़ी है।
छत्तीसगढ़ और ओडिशा के कुछ इलाकों में मोटा अनाज की खेती बढ़ी है. दक्षिण भारत में भी मोटा अनाज का चलन बढ़ा है. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में रोज के खान-पान में मोटा अनाज को शामिल किया जा रहा है.
इसलेख में हम लोग सावा की बात करेंगे जो मोटे अनाजों में प्रमुख नाम है।
सांवा हैं क्या?
इसका वानस्पतिक नाम Echinochloa frumentaca हैं। इसके दाने या बीज बाजरे के साथ मिलाकर खाये भी जाते हैं। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में यह खूब पैदा होती है। अनुपजाऊ भूमि पर भी इसकी खेती की जा सकती है जहाँ धान की फसल नहीं होती।
सांवा घास
Echinochloa colona नामक एक प्रकार की लंबी घास इसकी पूर्वज मानी जाती है जिसकी बालें चारे के काम आती हैं। साँवाँ नाम से भी जाना जाता है । इसका बीज स्लेटी रंग का चमकदार होता है। चावल,हलुआ आदि के रूप मे भोजन में प्रयोग किया जाता है। यह वर्षा ऋतु मे उत्पन्न होने वाला अनाज है,जो लगभग दो ढाई महीने मे तैयार हो जाता है। फसल तैयार होने पर पीटकर बीज को अलग कर लेते हैं। और हरे पौधों को खड़ा या चारा मशीन से काटकर ,भूसा मिला कर पशुओं को खिलाने के काम आता है
किसानों के अनुसार इसकी खेती में कम समय का लगना, कम पूंजी लगना, कोई भी बीमारी नहीं लगने से इसे उपजाने में काफी सहूलियत होती है। सावा की खेती इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि बाजार में भी अच्छी कीमत मिल जाती है। बाजार में सावा का चावल 100 रुपये से लेकर 120 रुपये तक मिलता है।
किसानों को नहीं करनी पड़ती है सिंचाई
किसानों का कहना है कि धान की खेती की अपेक्षा इस खेती में पूंजी कम लग रही है। धान की खेती में नहर व बोरिंग के नहीं रहने से सिंचाई करना काफी मुश्किल है। जबकि सावा की खेती के लिए किसी भी संसाधन की जरूरत नहीं पड़ती। किसानों को इसके लिए अलग से कोई मेहनत व पूंजी भी नहीं लगानी पड़ती है।
दंडकारण्य दर्पण