कृषि संपदा पूजा के साथ आज मनाएंगे अमूस तिहार, बस्तर लोकजीवन का प्रथम पर्व -अमुस तिहार
कृषि संपदा पूजा के साथ आज मनाएंगे अमूस तिहार, बस्तर लोकजीवन का प्रथम पर्व -अमुस तिहार
श्रावण अमावस्या को बस्तर का जनजातीय समाज खुशहाली के प्रथम पर्व के रूप में हरियाली का त्यौंहार मनाता है। जिसे हल्बी परिवेश में ” अमुस तिहार ” अथवा ” अमउस तिहार ” कहा जाता है। बस्तर के अलावा विभिन्न अंचलों में यह त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ी परिवेश में इस त्यौहार को “हरेली” के नाम से जाना जाता है।
सामाजिक शोधकर्ता एवं युवा साहित्यकार भागेश्वर पात्र बताते हैं कि सावन महीने में वर्षाऋतु के कारण खेत -खलिहान पानी से भर जाते हैं जिससे चारों ओर वातावरण हरा -भरा हो जाता है। किसान खेत में अपने श्रम से उपजे लहलहाते फसल को देखकर फूला नहीं समाता और अपनी खुशी को त्यौहार के रूप में मनाता है ।
सावन के महीने में वातावरण में जलाधिक्य से नमी की मात्रा बढ़ जाती है जिसके कारण कई जलजनित रोग हैजा, अतिसार,उल्टी – दस्त , मलेरिया बुखार समेत खाज- खुजली जैसे चर्मरोगों की अधिकता होती है। रोगाणु, कीटाणु , विषाणु एवं अनावश्यक कीट-पतंगों को इस मौसम में पनपने के लिये अनुकूल वातावरण मिल जाता है।इनकी सक्रियता के कारण वातावरण दूषित होने लगता है। वातावरण के दूषित होने से स्थूल,सूक्ष्म और कारण जगत तक नकारात्मक एवं दुर्गुणी शक्तियों की सक्रियता बढ़ जाती है जिससे पर्यावरण में नकारात्मक ऊर्जा प्रभावी होने लगती है।
बुरी शक्तियों से सुरक्षा के उपाय –
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बस्तर क्षेत्र में रूढ़िगत मान्यता है कि हरेली के पूर्व तक बुरी शक्तियाॅं सक्रिय रहती हैं।इस काल में दुर्गुणी शक्तियों से युक्त महिला पुरूष सर्वाधिक सक्रिय रहते हैं।अमुस से एक दिन पूर्व बुरी शक्तियों से सुरक्षा के लिये घर के मुख्य दरवाजे के सामने कोयले से लकीर खींचने का रिवाज है। चौघड़ी (मछली पकड़ने का जाल) के टुकड़े को चौखट के ऊपरी हिस्से में बाॅंंध दिया जाता है। रात्रि शयन के वक्त सिरहाने में नमक व मंडिया (रागी)के दानों को रखकर सोने का विधान है।
लोक विश्वास है कि दुष्ट और बुरी शक्तियाॅं चौघड़ी के छिद्र को गिनने में अक्षम होती हैं और वापस चली जाती हैं।कोयले से खींची गई तीन आड़ी समांतर रेखा घर की सुरक्षा के लिये लक्ष्मण रेखा का काम करती है।इन उपायों से वर्षभर घर-परिवार को दुष्ट शक्तियों से सुरक्षा मिल जाती है। जनजातीय एवं परंपरागत समाज में ऐसी धारणा पुरातन काल से है।
तंत्र साधना का केन्द्र बस्तर-
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आदिम समाज ने अपने ज्ञान-विज्ञान को किंवदंतियों के रूप में संरक्षित किया है।जिसके अंश यदा -कदा वाचिक परंपरा में यहाॅं के लोकजीवन में दृष्टिगोचर होते हैं। गुरू-चेला परंपरा और टोना-टोटका से संबंधित विद्या बस्तर में काफी प्रभावशाली मानी जाती है। आदिकाल से बस्तर तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
सावन महीने में अमावस की रात्रि से टोना-टोटका से संबंधित तंत्र विद्या को सीखने की परंपरा है।इसी रात्रि से गुरू इंद्रजाल, सफेद जादू और काला जादू जैसी तांत्रिक विद्या संबंधी ज्ञान अपने शागिर्दों को देते हैं। मान्यता है कि श्रावण अमावस्या की रात को कई मंत्रों को जागृत किया जाता है। ग्रामीण वैद्य और सिरहा-गुनिया जड़ी-बूटियों, औषधियों को अमावस की रात को ही आनुष्ठानिक विधि से जोगाने की प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं। तांत्रिक विद्या और जड़ी -बूटियों के जानकार गुरू इस विद्या को अनुयायियों को श्रावण अमावस्या की रात्रि से नागपंचमी तक सिखाते हैं।
अमुस में परंपरागत समाज की भूमिका-
गांव -देहात में मवेशियों को चराने का कार्य आमतौर पर राउत जाति के चरवाहे करते हैं।जिन्हें ” धोरई ” कहा जाता है। वर्षाकाल में खुरा-चपका , गलाघोंटू एवं अन्य रोग चौपाये जानवरों को होते हैं।धोरई अपने औषधीय ज्ञान के आधार पर इनका उपचार भी कर लेता है।अमुस तिहार के दिन प्रातः काल भेलवापान में सतावरी और रसना जड़ी को कुमी (स्थानीय वनस्पति) वृक्ष की बेल से बाॅंधकर चिपटकर घर के मुख्य दरवाजे के चौखट के ऊपरी हिस्से में बाॅंध देता है।धोरई उन्हीं घरों में जड़ी बूटी बांधता है जिन घरों के मवेशियों को वह चराता है।
लोहार प्रात:काल गांव के सभी घरों के चौखट में दुर्गागोटी(लौहमल का चूर्ण) को ठोकता है जिसे लोकभाषा हल्बी में ” खुंटी ठेंचतो “कहते हैं।पीढ़ा,खाट आदि में भी लोहार द्वारा खुंटी ठोंका जाता है।लोहार एवं राउत को सेवा के एवज में रोसई (सूखा राशन,दाल-चावल) अथवा नकद राशि देने की परंपरा है।
अमुस तिहार की वैज्ञानिकता-
जनजातीय समाज पारंपरिक चिकित्सा में सिद्धहस्त हैं। आधुनिक चिकित्सा के अभाव में आज भी आदिवासी इलाकों में बीमारियों का ईलाज जड़ी-बूटियों के द्वारा किया जाता है।भेलवां, सतावरी,रसना जड़ी,कुमी बेल के औषधीय महत्व के बारे में और इनके गुण-धर्म संबंधी जनजातीय समाज का ज्ञान वैज्ञानिकता से भरा-पूरा है।
भेलवापान (बिंब वृक्ष का पत्ता),जिसे गोंडी में ” कोहका ” कहा जाता है।इसकी शाखाओं,पत्तों,फल और तेल में कीटाणुनाशक गुण होता है।भेलवा चौपाये जानवरों में होने वाले खुरा-चपका और फसलों में होने वाली बीमारियों की रोकथाम करता है।घाव होने पर ,किसी नुकीली वस्तु से चोट लगने पर अथवा चुभने पर इसके फल से तेल को गरम करके लगाया जाता है।एक प्रकार से यह वनौषधि टिटनेस का काम करती है।
रसना जड़ी स्वाद में कड़वा है।यह जड़ी एण्टीबायोटिक का काम करती है।जीवों और फसलों में प्रजनन क्षमता को बढ़ाने का कार्य करती है।हार्मोन्स की सुरक्षा करती है।पाचन शक्ति को बढ़ाकर स्वास्थ्य में सुधार लाने का कार्य करती है।इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण औषधि सतावरी है जिसे हल्बी में छेदावरी कहते हैं।इसका एक नाम दशमूल कंद भी है। इसकी दस अलग -अलग प्रकार की जड़ें अथवा कंद होती हैं।सिरहा-गुनिया इसे ” देवबाढ़न ” के नाम से जानते हैं। सतावरी रोग प्रतिरोधी क्षमता और पोषक तत्वों का भण्डार है।ब्लड प्रेशर की रोकथाम,कामोत्पादक गुर्दे की सफ़ाई और पथरी बीमारी का नाश करती है।इसके रस को पीने से शरीर स्वस्थ और मजबूत बनता है।
वनौषधियों के जानकारों के अनुसार रसना जड़ी और सतावरी में कीटाणुनाशक और वायुशोधक गुण होते हैं। पशुओं के गलाघोंटू एवं अन्य रोगों के लिये ये औषधियाॅं अमृत के समान हैं।कुमी वृक्ष की बेल टूंटी हड्डियों एवंं मांसल भाग को जोड़ने का कार्य करती है। रसना जड़ी, सतावरी की नाल और भेलवापान घर में रहने से नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता तथा घर का वातावरण शुद्ध बना रहता है।
अमुस तिहार के दिन प्रातः काल स्नानादि कर ग्रामीण देवगुड़ी जाते हैं।अच्छे फसल की कामना के साथ इष्टदेव की पूजा-अर्चना करते हैंऔर आभार प्रदर्शित करते हैं।तथ्यात्मक दृष्टि से हरेली तिहार पशुधन की चिकित्सा,फसल-सुरक्षा एवं कृषि औजारों की पूजा-अनुष्ठान के लिये समर्पित है।
फसल सुरक्षा के उपाय एवं कृषि उपकरणों की पूजा-
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तेन्दूडारा (तेन्दू वृक्ष की डगाली),भेलवापान की चिपटी में सतावरी,रसना जड़ी और पूजन सामग्री के साथ किसान प्रात:काल खेतों में जाता है। धरती माता को प्रणाम कर ,पूजा कर क्यारियों के मध्य तेन्दूडारा को गाड़ता है और भेलवापान की चिपटी को कुंमी बेल से डगाली में बांधता है। फसलों की सुरक्षा की यह प्राकृतिक विधि है। सतावरी और रसना जड़ी में कीटाणुनाशक और वायुशोधक गुण होने के कारण इसके गंध से कीट-पतंगे फसल के पास नहीं आते।तेन्दूडारा फसल से अलग दिखने से पक्षियाॅं इस पर बैठकर कीट-पतंगों को खाती हैं।
हल्बा जनजातीय और परंपरागत कृषक इस दिन कृषि उपकरणों हल,जुआंडी,फावड़ा, कुदाली,गैंती ,सब्ब्ल ,हॅंसिया इत्यादि को धोकर लाली,सिंदूर लगाकर पूजा अर्चना करते हैं और कृषि कार्य में निरंतर सहयोग के लिये आभार जताते हैं।धोरई एवं कृषक सतावरी और रसना जड़ी में नमक मिलाकर सियाड़ी पत्ती में चिपटकर गाय-बैलों को खिलाते हैं।
शाकभाजी और जड़ी-बूटियों को जोगाना-
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वर्षा के कारण खनिज लवण जल में घुलकर क्रियाशील हो जाते हैं और ये सीधे पौधौं के जड़ से शीर्ष भाग तक पोषण प्रदान करते हैं। आवश्यकता से अधिक उर्वरता के प्रभाव से शाकभाजी के पौधे तीव्र व्रृद्धि करने लगते हैं और पत्तियाॅं तक एकदम हरी-भरी दिखने लगती हैं।इस अवधि के साग-सब्जी का सेवन करने से दस्त,पेटदर्द एवं पेट से संबंधित रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है।इसी कारण बरसाती मौसम के भाजी-डारा को खाने से बुजुर्गजन मना करते थे। पुरखों द्वारा उपयोग की मनाही ने परंपरा का रूप ले लिया और आदिम समाज में वानस्पतिक पदार्थों, फसलों और वनोपजों के उपयोग में लाने के पूर्व जोगाने की परंपरा विकसित हुई।” जोगाने” से तात्पर्य है -वानस्पतिक पदार्थों को उपयोग में लाने से पूर्व ग्रामदेवी अथवा इष्टदेव में अर्पण करना।
उल्लेखनीय है कि आदिवासी समाज अमुस तिहार के दिन इष्टदेव में जीर्रा(खट्टाभाजी),चेंचभाजी,धोबाभाजी को जोगाते हैं।इन वनस्पतियों के साथ तेन्दू, सतावरी,भेलवां और कुमी बेल को भी जोगाने की परंपरा है।
घोड़ोंदी(गेड़ी) खेलने का रिवाज-
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अमुस तिहार में गेड़ी खेल का रिवाज है।गोंडी बोली में इसे “डिटोंग “कहा जाता है।बच्चे तथा युवा इस दिन गेड़ी पर चढ़कर नाचते-कूदते मनोरंजन करतें हैं।प्राचीन काल में गेड़ी का उपयोग दलदल एवं कीचड़ से पैरों को बचाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलने के लिये होता था परंतु समय के फेर ने इसे मनोरंजन और प्रतियोगिता में बदल दिया।पोरा (पोला पर्व)में गांव की सीमा मेंं गेड़ी को विसर्जित करने का रिवाज है।
पाठजात्रा (ठुरलू खोटला पूजा)
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बस्तर की संस्कृति अपनी अनूठी विशेषता के लिये विश्वप्रसिद्ध है।अंचल में 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशहरा का प्रारंभ हरियाली अमावस्या से होता है। प्रतिवर्ष दशहरा पर्व में रथयात्रा के लिये नवीन रथ का निर्माण किया जाता है।रथ निर्माण हेतु अमावस्या के दिन ही लकड़ी का एक बड़ा टुकड़ा लाया जाता है जिसे ” ठुरलू खोटला “कहा जाता है।” ठुरलु खोटला”हल्बी शब्द है जिसका अर्थ होता है- पूर्णतः:ठोस एवं भरा हुआ तना।इस लकड़ी के टुकड़े की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। दंतेश्वरी माई और आंचलिक देवी -देवताओं की आराधना कर तने के ऊपर अण्डा,मोंगरी मछली और बकरे की बलि दी जाती है।बस्तर दशहरा का विधिवत शुभारंभ इसी रस्म से होता है।बस्तर दशहरा के इस प्रारंभिक विधान को ” पाठजात्रा “कहा जाता है।
आदिकाल से बस्तर अंचल में निवासरत जनजातीय एवं परंपरागत समाज के लोग हर्षोल्लास से अमुस तिहार को खुशहाली के आगमन के रूप में मनाते आ रहे हैं। क्षेत्रीयता के आधार पर पर्व मनाने के तौर-तरीकों में थोड़ी बहुत भिन्नता देखने को मिलती है फिर भी रस्मों -रिवाजों में काफी हद तक समानता पाई जाती है।
“साभार“
भागेश्वर पात्र द्वारा रचित ” बस्तर लोकजीवन का प्रथम पर्व -अमुस तिहार “