आदिवासी आस्था का पर्व- बम्हनीकरीन/गंगेश्वरी माता का वार्षिक देवजातरा
बम्हनी (नरायनकोट) का इतिहास
नागवंशी राजाओं के शासनकाल में प्राचीन नारायणपुर नरायनकोट के नाम से जाना जाता था एवं इस नगर को नारायणदेव नामक नागवंशी शासक ने बसाया था। बम्हनी गांव से प्राप्त ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य नल – नागवंशी शासनकाल में आदिवासियों की समृद्ध सत्ता की ओर इशारा करते हैं।
बम्हनी से प्राप्त लाल रंग के चौकोर और लंबाई में बड़े आकार की पक्की ईंटें, मृदभांड के अवशेष, सिक्के/मुहरें, शिव -पार्वती की काली पाषाण प्रतिमायें,मुंडा महल/राज महल के अवशेष,सात आगर सात कोड़ी तरई (147 से अधिक तालाब), जिनमें प्रमुख तालाब हैं – किस ताडुम,केकेर बन्धा, रानी तरई, राजा तरई,जोड़ा तरई आदि। लोकमान्यता के अनुसार यह नगरी नागकाल में तालाबों की नगरी के नाम से प्रसिद्ध थी।147 से अधिक तालाब इस स्थान पर थे लेकिन वर्तमान में 10 – 12 की संख्या में ही तालाबों का अस्तित्व है।
मावली के बाद गंगेश्वरी माता की प्रतिष्ठा –
बस्तर में माई दन्तेश्वरी के आगमन से पूर्व मावली प्रमुख आराध्य देवी थीं। बस्तर देव संस्कृति में 32 बहना 84 पाट और 33 कोटि देवी -देवताओं की परंपरा है। जनजातीय आस्था और आंचलिक मान्यता मावली के बाद बम्हनीकरीन/गंगेश्वरी को द्वितीय क्रम पर स्थान देती है।
आदिवासी प्रकृति पूजक हैं। देवी देवताओं के प्रतीक आंगा,डोली,लाट,बैरंग या प्राकृतिक वस्तुयें होती हैं। देवताओं के अधिकतर आंगा प्रतीक होते हैं।माताओं और देवियों के अधिकतर डोली बनती हैं।कुछ माताओं की डोली और आंगा दोनों ही प्रतीक स्वरूप होते हैं।जिन देवियों/माताओं का प्रतीक सिर्फ डोली होती है, उन्हें ” दरसगुड़ीन माता “कहते हैं।माता बम्हनीकरीन/गंगेश्वरी सिर्फ डोली में ही सवार होती हैं, इसलिए इन्हें दरसगुड़ीन अथवा दरसबिती माता भी कहते हैं।
प्रत्येक देवी – देवता का वर्ष में एक बार जातरा होता है।वृहृद स्तर पर जातरा तीन साल में मनाया जाता है ,जिसे ” फूल उतारनी ” अथवा ” कलसा जातरा ” कहते हैं।
जनजातीय आस्था देवी देवताओं से अभिन्न रूप से जुड़ी है। आदिवासी अपने देवी देवताओं को प्रसन्न करने के कई उपाय करते हैं।वे उनसे अपनी भाषा में बातें करते हैं। उन्हें खुश करने के लिए उनके साथ नाचते कूदते हैं। वाद्ययंत्रों के माध्यम से, संगीत और नृत्य के माध्यम से रिझाने का, प्रसन्न करने का हरसंभव प्रयास करते हैं।
जातरा या आदिवासियों के दैवी अनुष्ठान में देवी देवताओं के साथ मनुष्यों का भी समागम होता है। क्षेत्र के देवी देवताओं का आपस में मेल मिलाप होता है, उसी प्रकार अंचल के लोग भी जातरा के अवसर पर अपने सगे संबंधियों से भेंट मुलाकात करते हैं।इस दृष्टि से जातरा मड़ई /मेला का शक्ल ले लेती है।
देवजातरा की तैयारी –
देवजातरा प्रतिवर्ष मनाया जाना वाला पर्व है जिसमें क्षेत्र के सभी देवी देवता भाग लेते हैं।बड़े स्तर पर मनाया जाने वाला जातरा पर्व तीन साल में मनाया जाता है।
जातरा की तैयारी हेतु फागुन माह की समाप्ति पर गांव में चर्चा हेतु बैठक आयोजित होती है जिसमें गांव के गांयता,पटेल, पुजारी,पात्र/पातर परिवार के सदस्य, बुजुर्गजन, युवा और परंपरागत समाज के लोग भी भाग लेते हैं।देव समिति गठित की जाती है। बैठक में देव न्यौता और आयोजन के संबंध में चर्चा होती है एवं जिम्मेदारी सौंपी जाती है। आमतौर पर चैत्र माह में ही जातरा का कार्यक्रम संपन्न होता है।
देव निमंत्रण –
परगन के सभी देवी देवताओं को न्यौता दिया जाता है।देव समिति पूजन सामग्री लेकर विभिन्न गांवों में जाकर देवी देवताओं की सेवा -अर्चना कर ग्रामीणों और देवताओं को जातरा में आने की सूचना देते हैं और जातरा की तिथि बताकर निमंत्रण देते हैं।
देवी-देवताओं का आगमन –
निर्धारित तिथि में देवी देवताओं के आगमन के बाद गांव की महिलाओं एवं बुजुर्गों द्वारा स्वागत कर विश्राम के लिए निर्धारित आसन/स्थान दिया जाता है।
देवी देवताओं के एकत्रित होने के बाद देवकोठार को ” कीली खुट्टी ” (लौहमल का चूर्ण) मारकर बंधन में बांध दिया जाता है ताकि कोई अशुभ शक्ति देवकोठार में प्रवेश न कर सके और जातरा कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हो सके।
दूसरे दिन 4 बजे देवी देवता खेलते हैं और नर्तक दल द्वारा नृत्य किया जाता है।ढोल बजाकर युवा समूह द्वारा देवी देवताओं को नाचने कूदने और परिक्रमा के लिए प्रेरित किया जाता है। सूर्योदय के बाद लगभग 6 – 7 बजे देवी देवता ” रचन खेलने ” गांव में निकलते हैं।घर – घर जाकर हल्दी पानी का घोल,तेल,चावल, पुष्प,लाली का अर्पण देव विग्रहों में किया जाता है।मंद (देशी शराब) भी अर्पित की जाती है।सभी घर से रचन झोंकने के बाद देवकोठार में वापस आकर पुनः देवी देवता खेलते हैं।
रचन झोंकने का तात्पर्य है कि गांव के प्रत्येक घर की सुरक्षा की जिम्मेदारी वर्ष भर के लिए देवी देवता अपने ऊपर लेते हैं।देवकोठार में 2 – 3 घंटे खेलने के बाद निमंत्रित देवी देवताओं को चावल – पुष्प, नारियल अथवा पशु बलि एवं मंद अर्पित कर सेवा की जाती है।
तीसरे दिन समापन अवसर पर देवी देवताओं के खेलने के बाद होम आहार देकर सेवा अर्जी के बाद विदाई दी जाती है।
साभार – भागेश्वर पात्र
लोक साहित्यकार एवं सामाजिक शोधकर्ता