अंग्रेजों के खिलाफ फूंका था बिगुल ,आजादी के लिए 197 साल पहले फांसी पर चढ़े थे छत्तीसगढ़ के पहले शहीद परलकोट के जमींदार गैंदसिंह नायक ।

 

अंग्रेजों के खिलाफ फूंका था बिगुल ,आजादी के लिए 197 साल पहले फांसी पर चढ़े थे छत्तीसगढ़ के पहले शहीद परलकोट के जमींदार गैंदसिंह नायक ।

 सलाहकार – भागेश्वर पात्र 

 

20 जनवरी गेंदसिंह शहादत दिवस पर विशेष लेख –

परलकोट विद्रोह और गेंदसिंह नायक की भूमिका

पराधीनता की बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्रता की अलख जगाने में बस्तर अंचल के जननायकों का महत्वपूर्ण योगदान है। छत्तीसगढ़ राज्य में ब्रिटिश दासता के विरुद्ध सर्वाधिक विद्रोह बस्तर क्षेत्र में हुये हैं। इतिहास गवाह है कि आदिवासी स्वाभिमान ने कभी भी गुलामी स्वीकार नहीं की है।

आदिवासी विद्रोह और उनके नेतृत्वकर्ता जननायकों ने अद्भुत शौर्य ,साहस और कुशल रणनीति से इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है। ऐसे ही एक जनजातीय क्रॉंतिवीर अमर शहीद गेंदसिंह बाऊ का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

गेंदसिंह का जन्मस्थान बम्हनी गांव (नरायनकोट) – 

 

जनश्रुति है कि गेंदसिंह का जन्म छत्तीसगढ़ प्रदेश के वर्तमान नारायणपुर जिले के बम्हनी गांव में हुआ था। मान्यता है कि ये नरायनकोट के राजवंश से संबंधित थे। प्राचीन नारायणपुर नरायनकोट के नाम से जाना जाता है जो कि वर्तमान में बम्हनी गांव में स्थित है। नागवंशी राजा नारायणदेव ने इस नगर को बसाया था।बम्हनी गांव से प्राप्त ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य नल – नागवंशी शासनकाल में आदिवासियों की समृद्ध सत्ता की ओर इशारा करते हैं।लाल रंग के चौकोर और लंबाई में बड़े आकार की पक्की ईंटें, सिक्के/मुहरें,शिव – पार्वती की काली पाषाण प्रतिमायें,मुंडा महल /राजमहल के अवशेष,राजा तालाब,रानी तालाब एवं सात आगर सात कोड़ी तरई ( 147 से अधिक तालाब)इस ऐतिहासिक नगरी की भव्यता और वैभवशाली विरासत की कहानी स्वयं कहते हैं।

गेंदसिंह बचपन से ही हमउम्र बालकों के समूह में नेतृत्वकर्ता की भूमिका में होते थे।वे खेलकूद में अपने समूह के मुखिया हुआ करते थे। वीरता एवं साहस का गुण उनमें बाल्यकाल से ही था। युवावस्था में पहुंचने पर इनका विवाह देहारी परिवार की लड़की से हुआ।नये रियासत की स्थापना कर राज करने का स्वप्न इनके मन में था। नेतृत्व गुणों से परिपूर्ण व्यक्तित्व गेंदसिंह को नरायनकोट अधिक समय तक रास नहीं आया।

 

कोंगाली गढ़ –

 

राजसी प्रतिभा एवं साहस के धनी गेंदसिंह नये राज्य के निर्माण के लिए नरायनकोट से सपरिवार माड़गांव की ओर गये।कुछ समय तक कोंगाली गांव में सपरिवार निवास किया।इस गांव को गढ़ बनाकर राज करने का प्रयास किया।आज भी कोंगाली गढ़ में इनके द्वारा अर्धनिर्मित महल के अवशेष हैं। बुजुर्गो के अनुसार महल में तीन कमरे हैं।राजा द्वारा निर्मित खेत के प्रमाण और उनके द्वारा निर्मित तालाब आज भी स्थित हैं।

कोंगाली गांव इन्हें अधिक दिनों तक रास नहीं आया। बहुत दिन गुजरने के बाद एक दिन शिकार करने के उद्देश्य से हिरन का पीछा करते हुए परलकोट क्षेत्र के सितरम नामक स्थान पर पहुंचे और यहीं पर स्थायी रूप से निवास का मन बना लिया। परलकोट क्षेत्र उनके लिए अनुकूल सिद्ध हुआ। धीरे – धीरे संगठन और नेतृत्व क्षमता से क्षेत्र में लोकप्रिय होते गये।अबुझमाड़ एवं परलकोट क्षेत्र की जनता ने उन्हें अपना राजा माना।उनकी ख्याति परलकोट से लगे चांदा (वर्तमान चंद्रपुर जिला) महाराष्ट्र की सीमा तक पहुंचने लगी।

 

परलकोट रियासत/जमींदारी –

 

बस्तर भूषण (1908) के लेखक केदारनाथ ठाकुर और बस्तर का मुक्ति संग्राम – हीरालाल के अनुसार परलकोट रियासत बस्तर भूमि के प्राचीन रियासतों में से एक थी। रियासत की राजधानी सितरम गांव में थी।सितरम तीन नदियों कोटरी,निबरा और बोरडिंग के संगम पर बसा है। उत्तर बस्तर में स्थित इस जमींदारी का कुल क्षेत्रफल 1908 ई.में 640 वर्गमील था तथा 1901 की जनगणना के अनुसार यहां की कुल जनसंख्या 5920 थी। जमींदारी के अन्तर्गत कुल 165 गांव थे।

बस्तर रियासत के दीवान लाल कालेन्द्र सिंह ( 1908 ) और ब्रिटिश इतिहासकार दि ब्रेट के अनुसार गेंदसिंह की उपाधि ” भूमिया राजा ” की थी। परलकोट के जमींदार की हैसियत पूर्व में एक रियासत के राजा की भांति थी। मात्र बस्तर राजा के आंशिक नियंत्रण में यह जमींदारी थी परन्तु 1795 के बाद ब्रिटिश – मराठा हस्तक्षेप बस्तर क्षेत्र में बढ़ता गया। कालान्तर में 1818 के बाद बस्तर राजा की स्थिति एक जमींदार की हो गयी।जिसका प्रभाव बस्तर के अधीनस्थ अन्य रियासतों पर भी पड़ा तथा अन्य रियासतों के अधिपति की हैसियत भी एक जमींदार की हो गयी।इस काल में नारायणपुर का क्षेत्र भी परलकोट रियासत के अंतर्गत शामिल था।

” भूमिया राजा “ का पद काकतीय शासनकाल के दौरान उन शासकों को दी जाती थी जिनकी स्थिति भूपति,बड़े जमींदार अथवा सामंत की थी। ऐसे भूपति, जमींदार एक समय राजा की तरह अपने रियासत के शासक हुआ करते थे लेकिन 1798 के बाद से बस्तर क्षेत्र में ब्रिटिश दखल बढ़ने से इनके हितों को चोट पहुंची थी।

मौखिक साहित्य के अनुसार गेंदसिंह के आदिपुरूष की उत्पत्ति चट्टान से हुई है।आज भी इसके चिन्ह नरायनकोट (बम्हनी) गांव में हैं जिसमें एक पत्थर पर योनि का चिन्ह आज भी देखा जा सकता है।पत्थर से उत्पन्न होने के कारण नरायनकोट के राजा को लोकभाषा हल्बी में ” पखनाकोटिया राजा ” भी कहा जाता है। आधुनिक युग में इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि कोई व्यक्ति पत्थर फोड़कर कैसे उत्पन्न हो सकता है ? लेकिन इसका सांकेतिक अथवा प्रतीकात्मक अर्थ लगाया जाये तो यह सिद्ध होता है कि यहॉं का राजा इसी भूमि का आदिनिवासी अथवा आदिवासी था। उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक पदार्थों, काल्पनिक पुरूषों अथवा पौराणिक चरित्रों से संबंध जोड़कर अपनी श्रेष्ठता का दावा करने के कई साक्ष्य भारतीय इतिहास में मिलते हैं।

 

 अलौकिक एवं विराट व्यक्तित्व के धनी गेंदसिंह –

 

संगठन क्षमता के धनी गेंदसिंह की ख्याति अबुझमाड़, परलकोट एवं परलकोट की सीमा के बाहर महाराष्ट्र तक पहुॅंचने लगी।इनकी प्रसिद्धि को सुनकर एक समय बस्तर महाराजा इनसे भेंट करने परलकोट रियासत पहुॅंचे थे तथा इन्हें ” भूमिया राजा ” का पद प्रदान किया था। नेतृत्व एवं संगठन क्षमता जैसे गुणों के कारण इनके पुरखे नायक गोत्रीय थे।नायक राजपद होता था। प्रशासन,न्यायिक क्षेत्र अथवा सैन्य कार्य में अग्रणी भूमिका निभाने वाले को राज्य की ओर से “नाईक ” अथवा ” नायक ” पद से सुशोभित किया जाता था।रियासत कालीन न्याय व्यवस्था में हल्बा जनजाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।आज भी इस जनजाति में सामाजिक निर्णय में ” पॉंच नाईक ” की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। कालान्तर में यह नाईक अथवा नायक का पद हल्बा जनजाति में उपनाम में समाविष्ट हो गया।

परलकोट की सीमायें महाराष्ट्र के चांदा तक लगती थीं। ऐसे में इस क्षेत्र के सीमावर्ती हिस्सों में मराठी सॅंस्कृति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। ” भाऊ “अथवा ” बाऊ ” मराठी सॅंस्कृति में आदरसूचक शब्द होता है। अपने से बड़ों के संबोधन के लिये आमतौर पर भाऊ शब्द का प्रचलन है।बस्तरिया सॅंस्कृति में ” दादा ” का जो महत्व है वही महत्व मराठी सॅंस्कृति में भाऊ का है। परलकोट तथा सीमावर्ती भाग की जनता इन्हें आदर से भाऊ संबोधित करती थी। कालांतर में इनके नाम के साथ “बाऊ” अथवा “भाऊ ” शब्द उपनाम के रूप में जुड़ गया। वर्तमान में इनके वंशजों को बाऊ नाईक से संबोधित किया जाता है।इस क्षेत्र में बस्तरिया एवं मराठी सॅंस्कृति का मिश्रित रूप आज भी देखने को मिलता है।

अबुझमाड़ क्षेत्र के बुजुर्गो के अनुसार गेंदसिंह बाऊ विलक्षण व्यक्तित्व के मालिक थे। इनके इर्द-गिर्द सदैव मधुमक्खियों का झुण्ड गोल घेरे में रहता था ‌।मधुमक्खियॉं राजा की सुरक्षा के साथ-साथ आभामंडल की तरह व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाने का कार्य करती थीं। जैविक युद्ध में भी ये मधुमक्खियॉं काम आती थीं। अपनी रणनीतिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिये उन्होंने परलकोट की किलाबंदी की थी। न्यायप्रियता, उदारता एवं दानवीरता के कारण वे प्रजा के बीच काफी लोकप्रिय थे। भूमिया राजा पालकी में अथवा घोड़े पर सवार होकर प्रजा का हाल-चाल जानने क्षेत्र का दौरा करते थे।वे हरसंभव अपनी गरीब प्रजा को अन्न,वस्त्र एवं धन देकर सहायता पहुॅंचाते थे।इनकी लोकप्रियता के कारण ॳॅंगरेज और मराठा इनसे भय खाते थे।

 

सिंगार बहार –

 

बस्तर रियासत के अधीन जमींदार राजाओं को प्रतिवर्ष बस्तर दशहरा में शामिल होने जगदलपुर जाना होता था।गेंदसिंह अपने विश्वस्त सहयोगियों के साथ परलकोट से निकलकर गारपा, सोनपुर होते हुये जगदलपुर जाते थे।इस दौरान मार्ग में इनका काफिला विशेष स्थानों पर रूकता था। सोनपुर गॉंव इनका विश्राम स्थल था।

सोनपुर होते हुये राजा का काफिला ” सिंगार बहार ” में रूकता था। वर्तमान में नारायणपुर जिलान्तर्गत अबुझमाड़ के कोडोली ग्राम में सिंगार बहार नामक स्थान है।इसी स्थान पर राजा का काफिला रूकता था।यहॉं चबूतरा जैसी जगह है, यहीं पर गेंदसिंह का राजसी श्रृंगार होता था।पास ही वृहद आकार के लंबवत दो समांतर शिलाखंड आज भी मौजूद हैं।इन शिलाखंडों पर राजा के घोड़े को बॉंधा जाता था।अबुझमाड़ के बुजुर्ग जन इसे राजा के अस्तबल के रूप में चिन्हॉंकित करते हैं।पास मेंं एक बरसाती नदी बहती है जिसे सिंगारबहार नदी के नाम से जानते हैं। राजा का विश्राम स्थल और साज – श्रृंगार होने के कारण इस स्थल का नाम ही सिंगार बहार पड़ गया।

 

परलकोट/अबुझमाड़ विद्रोह के कारण – 

 

सन् 1818 में आंग्ल – मराठा संधि के तहत बस्तर राजा की शक्ति सीमित कर दी गई और बस्तर रियासत का संपूर्ण क्षेत्र ब्रिटिश अधिकारियों की निगरानी में आ गया तथा सत्ता का केंद्र भोंसला शासन के अधीन नागपुर हो गया।बस्तर राजा का दर्जा शासक से जमींदार की हो गई।बस्तर रियासत के आंशिक नियंत्रण में रहकर जो आदिवासी जमींदार स्वयंभू अथवा स्वायत्त शासक थे,उनकी प्रतिष्ठा को सदा के लिए समाप्त कर दिया गया। जिससे नाराज होकर आदिवासी जमींदार तत्कालीन ब्रिटिश – मराठा शासन के विरुद्ध हो गये।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से 1795 ई. से ही ब्रिटिश सरकार ने बस्तर क्षेत्र पर हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया था,जब ब्लण्ट की सहयोगी सेना ने इस क्षेत्र पर घुसपैठ किया था। स्वतंत्रता प्रेमी आदिवासी अपने बीच बाहरी गोरों को देखकर अपनी विशिष्ट पहचान को लेकर आशंकित थे तथा आदिम सॅंस्कृति के लिए इन्हें खतरा मानने लगे थे।कभी – कभी पर्यटक के वेश में भी ॳॅंगरेज अपने गुप्तचर आदिवासी क्षेत्र में भेजते थे।

ॳॅंगरेज – मराठा अधिकारियों के दौरे के समय आदिवासियों को पालकी ढोना पड़ता था।सामान ढोने से लेकर अन्य बेगार के कार्य करने पड़ते थे। ऐसे बेगारी कार्य आदिवासियों के स्वाभिमान के विपरित था। मनाही करने पर अत्याचार सहना पड़ता था जो कि स्वाभिमानी आदिवासियों के लिये असहनीय था।मराठा शासन में लूटमार,शोषण आम बात हो गई थी। टैक्स का बोझ जनता पर भारी था और आदिवासियों से मनचाहा टैक्स वसूला जा रहा था।

बस्तर रियासत में मराठा – ॳॅंगरेज शासन से पूर्व राजकीय कार्यों में हल्बा जनजाति के योगदान को देखते हुये इस जनजाति को कर में छूट प्राप्त थी। बस्तर में हल्बा प्रतिष्ठित जाति मानी जाती थी लेकिन मराठा शासन में इस जनजाति पर भी कर का बोझ लादा गया जिससे हल्बा जनजाति की प्रतिष्ठा को चोट पहुॅंची थी। पुराने जमींदारों की स्थिति में गिरावट से भी आदिवासी खुश नहीं थे क्योंकि अब इनकी सरकार अपनी नहीं बल्कि गैर थी।

मराठा फौज से निष्कासित पिंडारी लूटपाट के इरादे से बस्तर प्रवेश करते थे। बंजारा जाति के बस्तर में प्रवेश से आदिवासियों का आर्थिक शोषण हुआ। आदिवासी बाहरी दुनिया से बेखबर अपनी मस्ती में जीने वाले लोग हैं।इनकी आवश्यकतायें सीमित होती हैं। इन्हें नमक,कपड़ा और तेल के लिये व्यापारियों पर निर्भर होना पड़ता है। बंजारा जाति इन वस्तुओं की आपूर्ति आदिवासियों को करती थी। बंजारा व्यापारी आदिवासियों से वनोपज औने – पौने दाम में खरीदकर बदले में नमक व कपड़ा इन्हें बेचते थे।इन कारणों से जनजातियों का आर्थिक शोषण हो रहा था।

शोषण, अन्याय और अत्याचार से अबुझमाड़ एवं परलकोट क्षेत्र की जनता आंग्ल – मराठा सरकार के विरुद्ध उद्वेलित हो रही थी।बस उन्हें साथ चाहिये था तो एक सुसंगठित नेतृत्व एवं मार्गदर्शन की,जो उन्हें उनका खोया आत्मसम्मान पुनः दिला सके। आसन्न संकट के इस काल में सबकी निगाहें अपने भूमिया राजा गेंदसिंह पर टिकी थीं।

 

विद्रोह की शुरूआत –

 

विद्रोह का केंद्र परलकोट की राजधानी सितरम था।अबुझमाड़ एवं परलकोट के गांवों में हल्बा,मुरिया,माड़िया एवं परंपरागत जातियॉं आबाद थीं। परलकोट जमींदारी के अन्तर्गत गेंदसिंह के कर्मचारी एवं संदेशवाहक समय – समय पर जनता के सुख-दुख संबंधी खबर राजा तक पहुॅंचाते थे जिसमें प्रजा के ऊपर ॳॅंगरेज‌‌‌ – मराठा अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न का जिक्र होता था।गेंदसिंह भी अपने पुराने सम्मान, प्रतिष्ठा के गिरने से तत्कालीन शासन से नाराज़ थे।

गेंदसिंह ने परलकोट और सप्तमाड़िया पहाड़ी में आबाद जनजातीय मुखियाओं एवं विश्वस्त लोगों की बैठक बुलाई।बैठक में सभी ने एक सुर में आततायी शासन के विरोध में संघर्ष के लिये विद्रोह का बिगुल फूंकने का निश्चय किया तथा विद्रोह के नेतृत्वकर्ता के रूप में भुमिया राजा के नाम का समर्थन किया।अबुझमाड़, परलकोट से लेकर महाराष्ट्र के गढ़चिरौली तक के विस्तारित क्षेत्र में जनजातीय समाज ने गेंदसिंह को नायक के रूप में स्वीकार किया।

 

आदिम शिक्षा केन्द्र ” गोटुल “की भूमिका

 

गेंदसिंह संगठन क्षमता और नेतृत्व गुणों के साथ अच्छे रणनीतिकार भी थे।वे जानते थे कि आदिवासी लड़ाके छापामार युद्ध में पारंगत हैं। आदिवासियों का गोटुल (गोंडी भाषाविदों के अनुसार विशुद्ध गोंडी शब्दावली ) सॉंस्कृतिक केन्द्र होने के साथ ही रणनीतिक योजना का केन्द्र भी था।धावड़ा वृक्ष की टहनी को विद्रोह के प्रतीक के रूप में चुना गया।अबुझमाड़ के सभी गांवों में गोटुल होते थे। धावड़ा वृक्ष की टहनी को लेकर अबुझमाड़िये गांव – गांव जाकर लोगों को विद्रोह के लिए संगठित करने लगे।गोटुल में धावड़ा वृक्ष की टहनी पहुॅंचने का संकेत था कि – विद्रोह के लिये तैयार रहें! इस प्रकार की गतिविधि विद्रोह के लिये आमंत्रण की तरह था।जिस गोटुल के सदस्य इस प्रतीक को स्वीकारते थे, इसका तात्पर्य था कि वे विद्रोह के लिए तैयार हैं। धावड़ा वृक्ष के पत्तों के सूखने से पूर्व विद्रोह के लिए एकत्रित होने का आव्हान था।

24 दिसंबर 1824 से आदिवासी लड़ाके संगठित होने लगे थे। धीरे-धीरे यह विद्रोह अबुझमाड़ की सीमा को पारकर चांदा (महाराष्ट्र) तक फैल गया। 4 जनवरी 1825 तक विद्रोह की चिंगारी पूरे क्षेत्र में प्रभावी होने लगी। आदिवासी अपने हथियार टंगिया,फरसा,तीर – कमान को पैना करने लगे।

शुरूआत में विद्रोहियों के निशाने पर बंजारा जाति के व्यापारी आये। इन्होंने व्यापारियों के काफिले को लूटा, उन्हें बंधक बनाया। उनके साथ ज्यादती की और मार भगाया।अबुझमाड़ियों ने देखा कि मराठा सैनिक उन पर कोई कार्यवाही नहीं कर रहे हैं तो विद्रोहियों के हौसले बुलंद हो गये। आदिवासी झुंड के झुंड पारंपरिक हथियारों के साथ निकलते थे। मराठा सैनिक या ॳॅगरेज को पकड़ने पर निर्ममता पूर्वक उसकी हत्या कर देते थे।

विद्रोह में आदिवासी महिलाओं ने भी लड़ाकों का साथ दिया था।महिलायें चरवाहे के भेष में जंगलों में निकलती थीं और दुश्मन सैनिकों के आने की सूचना विद्रोहियों तक पहुॅंचाती थीं। नगाड़ा,मांदरी बजाकर और तोड़ी फूंककर विद्रोही अपने साथियों को सतर्क करते थे।

 

युद्ध में जैविक हथियार का प्रयोग

 

अबुझमाड़िया लड़ाके शत्रु सेना को देखते ही पेड़ों पर लटके मधुमक्खियों के छत्ते में आग लगा देते थे और सैनिकों पर विष बुझे बाणों की वर्षा करते थे। मराठा – ॳॅंगरेज सैनिक के पकड़े जाने पर उसकी बोटी – बोटी काट डालते थे। विद्रोहियों की छापामार युद्ध नीति से दुश्मन सैनिकों के हौसले पस्त होने लगे थे। विद्रोह का विस्तार परलकोट से प्रारंभ होकर अबुझमाड़, नारायणपुर और महाराष्ट्र के चांदा,गढ़चिरौली तक हो चुका था। आदिवासी 500 – 1000 की सॅंख्या में निकलते और सैनिकों पर हमला करते थे। विद्रोह का संचालन अलग – अलग टुकड़ियों में मॉंझी लोग करते थे। रात्रि में सभी विद्रोही किसी गोटुल में एकत्रित होते थे और अगले दिन की योजना बनाते थे।

 

नारायणपुर गढ़ और मावली माता का चमत्कार –

 

बस्तर क्षेत्र में ऐतिहासिक साक्ष्य लोकगाथाओं -कथाओं के रूप में जनमानस में मौजूद हैं।ऐसी ही विद्रोह से जुड़ी एक घटना नारायणपुर क्षेत्र में घटित हुई है। मावली माता नारायणपुर क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। प्राकृतिक आपदा, दैवी संकट अथवा आकस्मिक विपत्ति के समय गढ़ की रक्षा का दायित्व मावली माता के कंधों पर रहता है। नारायणपुर के उत्तर दिशा की ओर से अकस्मात आक्रमण होने का आभास माता को हो गया था। मराठा सैनिक विद्रोह को दबाने के मकसद से कई दिनों से पैदल नारायणपुर की ओर बढ़ रहे थे।थके हारे पैदल सैनिकों ने एक स्थान पर विश्राम कर आगे की योजना बनाने का निश्चय किया। थोड़ी देर विश्राम कर पास में ही बहने वाली नदी में स्नान करने चले गये।

माता मावली ने उनके विश्राम स्थल पर माया जाल से बाजार की रचना की। बाजार में तरह-तरह के पकवान दुकानों की शोभा बढ़ाने लगे।भूखे – प्यासे सैनिक फल – पकवानों को देखकर खाने का मोह नहीं छोड़ पाये। जिसने भी उन फलों को चखा, मृत्यु की नींद में हमेशा के लिये सो गया।एक सैनिक जो देरी से स्नान कर वापस आया, अपने मृत साथियों को देखकर उसी स्थान पर कहुआ वृक्ष पर लिखा कि – ” आगे खतरा है! ” यह स्थान नारायणपुर से उत्तर दिशा की ओर 13 किलोमीटर की दूरी पर है,जिसे ” मावली मोड़ ” कहा जाता है।आज भी यहॉं माता के पदचिन्ह पत्थर पर स्थित हैं।

इस रहस्यपूर्ण कहानी पर विश्वास न भी किया जाये ,तो भी यह सिद्ध होता है कि विद्रोहियों ने दुश्मन सैनिकों को भारी क्षति पहॅंचाई थी।

 

विद्रोह का अंत –

 

आदिवासी लड़ाके इतने आक्रामक हो गये कि इनके लूटपाटों और कत्लेआम से ब्रिटिश – मराठा अधिकारियों, ठेकेदारों, व्यापारियों और गैर आदिवासियों में दहशत का वातावरण निर्मित हो गया। इनके हमले इतने भयानक होते थे कि जो सामने आया,वह बच नहीं सकता था।वे उन लोगों को नुक्सान नहीं पहुॅंचाते थे,जो उन्हें सम्मान देते थे।गैर आदिवासियों में इन विद्रोहियों के प्रति ऐसा भय पैदा हो गया था कि वे अपने घरों के पास सुरंगें खोद लिये थे जिससे वे आक्रमणों से स्वयं सपरिवार बच सकें।भीषण विद्रोह को देखते हुये ब्रिटिश अधिकारी मेजर एग्न्यू ने 1 जनवरी 1825 और 4 जनवरी 1825 को विद्रोहियों की गतिविधियों की विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी।साल भर चलने वाले इस विद्रोह ने क्षेत्र में भुखमरी की स्थिति पैदा कर दी।

विद्रोह की तीव्रता को देखते हुये मेजर एग्न्यू ने 4 जनवरी 1825 को चांदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेव को निर्देशित किया कि विद्रोह को तत्काल दबायें। फलस्वरूप मराठों और ॳॅंगरेजों की सम्मिलित सेना ने 10 जनवरी 1825 को परलकोट के किले पर घेरा डाल दिया। किले की दीवार को तोप से उड़ाया गया। आदिवासी लड़ाकों ने शत्रु सेना का डटकर मुकाबला किया लेकिन तोप – बंदूकों से आग उगलते गोला – बारूद के आगे पारंपरिक अस्त्र – शस्त्र तीर – धनुष, टंगिया,फरसा की धार निस्तेज साबित हुई। विद्रोहियों की हार हुई।अट्ठारह दिनों के कड़े संघर्ष के बाद अन्ततः परलकोट पर ब्रिटिश – मराठा सेना ने कब्जा कर लिया। गेंदसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। गेंदसिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चला। 20 जनवरी 1825 को कैप्टन पेव के आदेश से गेंदसिंह को उनके महल के सामने इमली पेड़ में फॉंसी की सजा दी गई।

गेंदसिंह के पॉंच पुत्रों में से एक युद्ध में मारा गया।बचे चार पुत्रों के वंशज आज जीवित हैं।उनका एक पुत्र झाड़ापापड़ा (महाराष्ट्र) में बस गया।गेंदसिंह के बड़े बेटे कुमुदसाय के वंशज वर्तमान में सितरम में हैं। इनके छोटे बेटे के वंशज कॉंकेर में निवासरत हैं।गेंदसिंह के एक पुत्र के वंशज छोटेडोंगर (नारायणपुर) में आबाद हैं , जिन्हें नारायणपुर क्षेत्र में ” परलकोटिया ” के नाम से जाना जाता है।

 

गेंदसिंह का ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन –

 

नि:संदेह परलकोट विद्रोह के नेतृत्वकर्ता गेंदसिंह और उनके अनुयायियों का बलिदान अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध एवं बस्तर भूमि की मुक्ति के लिए था । आदिवासी जननायकों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। विद्रोह भले ही असफल साबित हुआ लेकिन ऐसे क्रॉंतिवीरों की शौर्यगाथाओं ने आजादी के लिए भावी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार की। सन् 1857 का सैनिक विद्रोह ” भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ” है लेकिन इसके लगभग तीन दशक पूर्व ही बस्तर भूमि में आदिवासी वीरों ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष का शंखनाद किया था। ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार 1824 – 1825 का परलकोट विद्रोह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। जनजातियों का यह स्वस्फूर्त आंदोलन था। जननायक गेंदसिंह कुशल नेतृत्वकर्ता, संगठनकर्ता और रणनीतिकार के रूप में इतिहास में अमर हैं।

छ.ग. के उत्तर – बस्तर कॉंकेर जिले में सितरम, परलकोट में उनकी स्मृति में आदमकद प्रतिमा की स्थापना की गई है। बस्तर संभाग के पखॉंजूर और चारामा के शासकीय महाविद्यालय का नामकरण गेंदसिंह नायक के नाम पर हुआ है।अखिल भारतीय हल्बा समाज द्वारा प्रतिवर्ष 20 जनवरी को उनके बलिदान दिवस को गेंदसिंह शहादत दिवस के नाम से मनाया जाता है। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर गेंदसिंह छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद हैं लेकिन इस अमर बलिदानी को उनके योगदान का वास्तविक सम्मान आज तक नहीं मिल सका है।

आदिवासी महानायक की 198 वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धानवत होकर पुष्पांजलि अर्पित करते हुये उनके योगदान को नमन करता हूं और पं.माखन लाल चतुर्वेदी की कविता” पुष्प की अभिलाषा ” की चंद पंक्तियां उन्हें समर्पित करता हूं। प्रकृति भी ऐसे वीरों का गुणगान करते नहीं थकती। फूलमालाओं में अलंकृत पुष्प भी अपनी अभिलाषा कविता के माध्यम से जाहिर करते हुये कहते हैं –

“मुझे तोड़ लेना वनमाली,उस पथ पर देना तुम फेंक।

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

जिस पथ जायें वीर अनेक।। ”

शहीद शिरोमणि को उनके शहादत दिवस पर कोटि कोटि नमन।

आभार

भागेश्वर पात्र,लोक साहित्यकार एवं सामाजिक शोधकर्ता,मो.नं.-9407630523

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