बस्तर लोक संस्कृति में नवान्न अर्पण का पर्व नवाखाई त्यौहार एवं परम्परा : दंडकारण्य दर्पण

बस्तर लोक संस्कृति में नवान्न अर्पण का पर्व नवाखाई त्यौहार एवं परम्परा : दंडकारण्य दर्पण

 

 

सलाहकार – भागेश्वर पात्र

नारायणपुर – भादो का महीना तीज-त्योहारों के लिये जाना जाता है। वर्षाकाल के अंत में खेतों में धान के पौधे परिपक्व स्थिति में होते हैं और धान के फूल फल का रूप ले चुके होते हैं। आदिम समाज से भिन्न अन्य समाजों में हलषष्ठी, जन्माष्टमी,हरितालिका तीज, गणेश चतुर्थी जैसे महत्वपूर्ण त्यौहार इसी मास में मनाया जाता हैै परंतु जनजातीय समाज सबसे प्रमुख पर्व के रूप में इसी माह नवाखानी को हर्षोल्लास के साथ मनाता है।

सामाजिक शोधकर्ता और लोकसाहित्यकार भागेश्वर पात्र बताते हैं कि आदिम संस्कृति में देवकुल /देवकोठार/पेनठाना की परंपरा है। आदिवासी अपनी उत्पत्ति का दावा प्रकृति (देव) से करता हैं और वर्ष में दो तीन अवसरों पर अमउस तिहार,नवाखानी और वार्षिक देव-जातरा में अपनी उपस्थिति देवकुल की परंपरानुसार अपने इष्टदेव के उत्पत्ति स्थल पर दर्ज कराता है। आदिवासी समाज का व्यक्ति कहीं पर भी हो परंतु नवाखानी के अवसर पर अपने कुलदेव-देवी अथवा पितृदेव के शरण में अवश्य पहुॅंंचता है। अपनों को अपनों के बीच पाकर सामूहिक रूप से हर्षोल्लास के साथ नवान्न का भोग ग्रहण कर जनजातीय समाज अपने आपको धन्य मानता है।

     लोकभाषा हल्बी में इस त्यौहार को ” नवाखातो ” और गोंडी मेंं ” पूनांग तिन्दाना “कहते हैं।

 

देवसमिति की भूमिका

जिला स्तर पर देवसमिति का गठन किया गया है और यह समिति तिथि निर्धारण में एकरूपता लाने का प्रयास करती है ताकि अंचल में समान रूप से इस त्यौहार को मनाया जा सके परंतु नारायणपुर जिलांतर्गत जनजातीय एवंं परंपरागत समाज के लोग कुल -कुटुंब अथवा गोत्रज व्यवस्था के आधार पर देवसंस्कृति से संबद्ध हैं । क्षेत्रगतं मान्यता और देवकुल की परंपरानुसार अपने गोत्रज देवस्थल में नवाखानी पर्व मनाते हैं।देवसमिति तय करती है कि जिले में किस तिथि को पर्व मनाया जाये ‌लेकिन क्षेत्रीय और लोकमान्यता के कारण निर्धारित तिथि से पूर्व और पश्चात भी नवाखाई का पर्व मनाया जाता है।वैसे जिले में महीने भर तक इस पर्व को उमंग और उत्साह से मनाने की परंपरा है।

 

राजटेका /राजेश्वरी माता की महत्ता

आंचलिक मान्यता और जनजातीय दृष्टिकोण से नारायणपुर जिले में सर्वप्रथम कोकोड़ीकरीन माता को नवान्न का भोग अर्पित किया जाता है।हल्बा जनजाति के लोग माता को कोकोड़ीकरीन अथवा राजेश्वरी के नाम से जानते हैं जबकि गोंडी में माता को राजटेका,कोकोड़बापी,कोकोड़डोकरी आदि नाम से पुकारते हैं। राजेश्वरी माता मावली की पुत्री हैं इसलिये क्षेत्र में इनकी प्रतिष्ठा अधिक है।

कोकोड़ी,बागडोंगरी और नारायणपुर के बुजुर्गों के अनुसार प्राचीन काल में राजटेका/राजेश्वरी माता के पुजारी पात्र गोत्रीय हल्बा थे।माता मावली की पुत्री होने के कारण पात्र हल्बा को माता की सेवा का अधिकार प्रदान किया गया था लेकिन दैवी संस्कार की पूर्णता के बाद बुड़गा (कृषि कार्य में अनुपयोगी अधेड़ उम्र का बैल) की बलि देनी होती थी।लंबे समय तक पात्र परिवार ने पुजारी के रूप में भूमिका निभाई परंतु कुछ काल के बाद बैल की बलि देने से मनाही के कारण मुरिया जनजाति के पोटाई परिवार को पुजारी का पद दिया गया।पोटाई परिवार का पुजारी बलि देते समय गर्दन पर प्रहार करता था तो फरसा बैल के पश्च भाग यानि पूंछ पर लगता था।बलि देने की इस प्रकार की असफल प्रयास की पुनरावृत्ति बारंबार होने से पुजारी का पद वड्डे परिवार को दिया गया।इस प्रकार की की किंवदंतियां माता के संबंध में प्रचलित हैं। वर्तमान मेंं रामसिंह वड्डे माता के पुजारी हैं परंतु माता के प्रथम पुजारी पात्र परिवार का होने से इनकी उपस्थिति नवाखानी,जातरा जैसे दैवी कार्य में आवश्यक है ‌।पात्र परिवार की अनुपस्थिति में प्रतीक चिन्ह बनाकर देव-विधान पूर्ण करने का रिवाज है।

कोकोड़ी (बागडोंगरी) मेंं माता के साथ उनके पति हाड़े हिड़मा भी स्थापित हैं।जिन्हें गोंडी में कोकोड़मुदिया कहा जाता है।ये करंगाल परगना के मंडादेव (मुख्य देवता) हैं।राजटेका और कोकोड़मुदिया के संबंध में कई दंतकथाये प्रचलित हैं।

कोकोड़ीकरीन माता की गुड़ी में तीजा के आसपास की तिथि में शुक्रवार के दिन ही नवान्न का भोग चढ़ता है।सर्वप्रथम माता के नया खाने के बाद अॅंचल के अन्य देवी – देवताओं को नवान्न भोग (नये धान के चावल से बना खीर और धान की बाली) अर्पित किया जाता है। लोकमान्यता है कि राजेश्वरी (राजटेका) बहुत ही शक्तिशाली देवी हैं और उनकी अनुमति मिलने के बाद ही नारायणपुर में विश्वप्रसिद्ध मावली मंडई का आयोजन होता है।अंचल के अधिकतर देवस्थल में शनिवार अथवा मंगलवार को नवाखानी पर्व मनाने की रीति सदियों से चली आ रही है।

नवान्न का भोग कुलदेव-देवी में अर्पण 

बस्तर अंचल के सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार नवाखानी में कुल -कुटुंब के सदस्य अपने गोत्रज देवस्थल पर पहुंचते हैं।अपने साथ नारियल, अगरबत्ती,चाउर पिसान (आटा),गुड़,घी,चावल दाल लेकर आते हैं। पितृदेव मेंं कुल का पुजारी अथवा वरिष्ठ सदस्य नये धान के चावल से बने खीर और केश (धान की बाली) को कुड़ईपान में कुलदेवता को अर्पित करता है। पुजारी द्वारा भोग चढ़ाने के बाद उपस्थित सभी सदस्य कुलदेवता/पितृदेव का आशीर्वाद लेते हैं एवं सुख -शांति, समृद्धि एवं सुरक्षा की कामना के साथ परिवार की कुशलता के लिये आभार जताते हैं।

सामूहिक रूप से खीर बनाकर प्रसाद स्वरूप सभी कुड़ईपान से निर्मित पत्तल में ग्रहण करते हैं।प्रसाद ग्रहण करने के बाद सभी आपस में मिलते हैं।एक दूसरे को नवाखानी त्यौहार की बधाई एवं शुभकामनायें देते हैं एवं बड़े -बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं।

नवाखाई के प्रथम दिवस को सात्त्विक ढंग से मनाने की परंपरा है।हल्बा जनजातीय दृष्टिकोण से इस दिन शाकाहारी व्यंजन और भोजन को कुड़ई के पत्तल में ही लेने का रिवाज है। आदिवासी समाज नवाखानी के दूसरे दिन को बासी तिहार के नाम से मनाता है।यह दिन युवा वर्ग और बुजुर्गो के लिये खासा उमंग और उत्साह लेकर आता है।इस दिन मांसाहार और मद्य सेवन की छूट होती है।

प्रथम दिन कुल -कुटुंब के सदस्य ही सामूहिक रूप से कुलदेव /डूमादेव (पितृदेव) का प्रसाद ग्रहण करते हैं लेकिन दूसरे दिन सगा -बिरादर को निमंत्रित कर प्रसाद स्वरूप भोजन ग्रहण करते हैं एवं एक -दूसरे को नवाखाई की बधाई और शुभकामनायें देते हैं।

 

ठाकुर जोहरानी/गायता जोहरानी

नवाखाई के पहले दिन को सभी जनजातीय समुदाय में सादगीपूर्वक पर्व मनाने की परंपरा है लेकिन दूसरे दिन सगा -बिरादर से मिल-भेंट करने का रिवाज है जिसे मुरिया जनजाति एवं गोंडी संस्कृति से संबद्ध समाज में गायता जोहरानी/ठाकुर जोहरानी के नाम से जाना जाता है।इस दिन लोग गायंता (माटी पुजारी) के पास मंद (देशी शराब) लेकर जाते हैं।गायंता को मंद अर्पित कर सुख – दुख संबंधी बातें करते हैं।गायंता को धन्यवाद देते हैं कि उनके कारण हम सब सुरक्षित और कुशल मंगल से हैं।गोण्डी संस्कृति के जानकार रूपसाय सलाम (रेमावंड निवासी) और सुंदर लाल नाग (करलखा निवासी) के अनुसार पुराने समय में गायंता इसी दिन खेती कमाने और घर बनाने के लिये लोगों को जमीन दिखाकर साफ-सफाई की सलाह देता था और उक्त जमीन पर काबिज होने का अधिकार प्रदान करता था।गायंता जोहरानी के दिन माटी पुजारी लोगों को गांव की ठाकुरदाई से संबंधित रीति – नीति की सीख देता है।गांव के दैवी प्रकोप से होने वाली परेशानी को हल करने की विधि बताता है एवंं अत्यधिक परेशानी होने पर स्वेचछा से गांव छोड़ने की सलाह भी देता है।

हल्बा जनजातीय दृष्टिकोण से कुड़ईपान का महत्व 

अन्य जनजातियों एवंं परंपरागत समाज में कुड़ईपान का विशेष महत्व न हों पर हल्बा जनजाति के लिये यह किसी दैवी पत्ते से कम नहीं है। वर्षाकाल में वर्षाजल के साथ विभिन्न प्रकार के खनिज लवण जल में घुलकर क्रियाशील हो जाते हैं और पौधों के जड़ से शीर्ष भाग तक आवश्यकता से अधिक पोषण प्रदान करते हैं लेकिन कुड़ई के वृक्ष पर खनिज लवण की अधिक सान्द्रता का असर नहीं होता।सभी प्रकार के वृक्षों के पत्तियों को कीड़े-मकोड़े नुकसान पहुंचाते हैं लेकिन कुड़ई के पत्ते सदैव सदाबहार एवंं सुरक्षित रहते हैं। प्रकृति पूजक आदिवासी अपने इष्टदेव को कीड़े-मकोड़ों से काट खाये जूठे पत्तल में कैसे भोग लगाये?देव को शुद्ध पत्तल से नवान्न का भोग परोसना होता है।इसी कारण हल्बा जनजाति में इस वृक्ष और इसके पत्तों का दैवीय महत्त्व है। दैवीय कार्यों में इसके पत्तों का उपयोग होने से लोकभाषा हल्बी में इसे ” देवपाना ” भी कहते हैं।यह वृक्ष बारहमासी हरा – भरा रहता है।जेठ महीने (मई – जून) के आसपास इस वृक्ष में छोटे-छोटे सफेद पुष्प खिलते हैं जिनके सुगंध से वातावरण महक उठता है।

 

कुड़ई वृक्ष का औषधीय महत्व

आदिवासी समाज पारंपरिक चिकित्सा में सिद्धहस्त है। वनौषधियों के गुण -धर्म से जनजातीय समाज भलीभांति परिचित है।कुड़ई में रोग प्रतिरोधी क्षमता भरपूर होती है।इसी कारण इसके पत्तों में भोजन करने से शरीर को रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रचुर मात्रा में मिल जाती है और शरीर को कोई हानि नहीं होती।इसके वृक्ष के छाल का उपयोग पेटदर्द,छातीदर्द सहित अन्य अंगों में पीड़ा को दूर करने मे होता है।ब्लड प्रेशर की रोकथाम और शुगर बीमारी में भी उपयोगी होता है एवं इसके छाल का उपयोग सर्पविषमोचन के लिये भी होता है।

 

नवान्न और कुड़ईपान को जोगाना

आदिम समाज में किसी विशेष अवसर पर जोगाने की प्रथा है।जोगाने से तात्पर्य है जागरण अथवा जागृत करना। वानस्पतिक पदार्थों को ग्रामदेवता अथवा कुलदेवता में अर्पण के बाद सर्वजन के लिये उपयोग योग्य बनाया जाता है।नवाखानी के अवसर पर नये धान के चावल और कुड़ई को जोगाया जाता है।

 

इष्टदेव/पितृदेव मेंं नवान्न अर्पण का पर्ध नवाखानी को आदिकाल से बस्तर अंचल में लोग हर्षोल्लास से मनाते आ रहे हैं। कुलदेवी -देवता से सुख शांति की कामना के साथ अपने जीवन को सुखमय बनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।इन जनजातीय पर्व -उत्सवों ने बस्तर की संस्कृति को समृद्ध किया है और यहॉं की लोक-संस्कृति को अंतरर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने में विशेष योगदान दिया है।

साभार – भागेश्वर पात्र 

Exit mobile version